Wednesday, October 10, 2018

नवरात्रि शैलपुत्री की कथा : Navratri Shailpurti ki Katha

नवरात्रि पूजन के पहले दिन मां दुर्गा के पहले स्वरूप माता शैलपुत्री का पूजन किया जाता है। ये ही नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। पर्वत राज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम शैलपुत्री पड़ा।
नंदी नामक वृषभ पर सवार ‘शैलपुत्री’ के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल का पुष्प है। इन्हें समस्त वन्य जीव-जंतुओं की रक्षक माना जाता है। दुर्गम स्थलों पर स्थित बस्तियों में सबसे पहले शैलपुत्री के मंदिर की स्थापना इसीलिए की जाती है कि वह स्थान सुरक्षित रह सके।

अपने पूर्वजन्म में ये प्रजापति दक्ष के घर की कन्या के रूप में उत्पन्न हुईं थीं। तब इनका नाम ‘सती’ था और इनका विवाह भगवान शंकरजी से हुआ था। एक बार प्रजापति दक्ष ने बहुत बड़ा यज्ञ किया जिसमें उन्होंने सारे देवताओं को अपना- अपना यज्ञ- भाग प्राप्त करने के लिए निमंत्रित किया। किन्तु दक्ष ने शंकरजी को इस यज्ञ में निमंत्रित नहीं किया। सती ने जब सुना कि उनके पिता एक अत्यन्त विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं तो वहां जाने के लिए उनका मन व्याकुल हो उठा। अपनी यह इच्छा उन्होंने शंकरजी को बताई।
सारी बातों पर विचार करने के बाद उन्होंने कहा – प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं। अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को आमंत्रित किया है। उनके यज्ञ- भाग भी उन्हें समर्पित किए हैं, किन्तु जान- बूझकर हमें नहीं बुलाया है। ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहां जाना किसी भी प्रकार श्रेयस्कर नहीं होगा।

शंकरजी के इस उपदेश से सती को कोई बोध नहीं हुआ और पिता का यज्ञ देखने, माता- बहनों से मिलने की इनकी व्यग्रता किसी भी प्रकार कम न हुई। उनका प्रबल आग्रह देखकर अंतत: शंकरजी ने उन्हें वहां जाने की अनुमति दे ही दी।
सती ने पिता के घर पहुंचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बात नहीं कर रहा है। सारे लोग मुँह फेरे हुए हैं। केवल सती की माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया।
बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव भरे हुए थे। परिजनों के इस व्यवहार से सती के मन को बहुत क्लेश पहुँचा। सती ने जब देखा कि वहाँ चतुर्दिक भगवान शंकर जी के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है और दक्ष ने भी उनके प्रति कुछ अपमानजनक वचन कहे।

यह सब देखकर सती का ब्रदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो उठा और उन्होंने सोचा भगवान शंकर जी की बात न मान, यहां आकर मैने बहुत बड़ी भूल की है। सती अपने पति भगवान शंकर जी का अपमान न सह सकीं और उन्होंने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगग्नि द्वारा भस्म कर दिया। वज्रपात के समान इस दु:खद समाचार को सुनकर शंकरजी ने अतिक्रुद्ध होकर अपने गणों को भेजकर दक्ष के यज्ञ का पूर्णतया: विध्वंस करा दिया।
सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस बार वे “शैलपुत्री” नाम से विख्यात हुईं।
पार्वती, हैमवती भी उन्हीं के नाम हैं। उपनिषद की कथा के अनुसार इन्हीं ने हैमवती स्वरूप से देवताओं का गर्व- भंजन किया था। “शेलपुत्री” देवी का विवाह भी शंकरजी से ही हुआ। पूर्वजन्म की ही भांति वे इस बार भी शिवजी की ही अर्धांगिनी बनीं। नवदुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री दुर्गा का महत्व और शक्तियाँ अनंत हैं।
उपासना मंत्र : वन्दे वांछितलाभाय चन्दार्धकृतशेखराम्।
                        वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्।।


नवरात्रि प्रथम दिन माँ शैलपुत्री की पूजा


वंदे वाद्द्रिछतलाभाय चंद्रार्धकृतशेखराम |
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीम्‌ ||
देवी दुर्गा के नौ रूप होते हैं । दुर्गाजी पहले स्वरूप में “शैलपुत्री” के नाम से जानी जाती हैं । ब्रह्मपुत्र दक्ष के यहाँ पुत्री सती स्वरूप को योगविद्या द्वारा प्राण त्याग कर पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण  “शैलपुत्री” के नाम से जाना जाता है ।
नवरात्र-पूजन में प्रथम दिवस इस स्वरूप की पूजा और उपासना की अवश्य करनी चाहिए । वृषभ-स्थिता इन माताजी के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएँ हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित “शैलपुत्रीमाँ” है । अपने पूर्व जन्म में ये प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं । तब माँ का नाम ‘सती’ था । इनका विवाह भगवान शंकरजी से हुआ था ।
कथा इस प्रकार है
एकबार प्रजापति दक्ष ने एक  महायज्ञ किया || इस महायज्ञ उन्होंने सारे देवताओं को अपना-अपना यज्ञ-भाग प्राप्त करने के लिए निमंत्रित किया गया किन्तु शंकरजी को उन्होंने इस यज्ञ में निमंत्रित नहीं किया । जब सती को ज्ञात हुआ कि उनके पिता एक अत्यंत विशाल महायज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं और तभी वहाँ जाने के लिए उनका मन बना लिया । जब सतीदेवी ने अपनी यह इच्छा उन्होंने शंकरजी से कही ।
तब शंकरजी ने कहा, प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं || महायज्ञ में उन्होंने सभी देवताओं को निमंत्रित किया है । उनके यज्ञ-भाग भी उन्हें समर्पित किया हैं, परन्तु मुझे अपमानित करने के कारण मुझे और तुमको भी नहीं बुलाया है। ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहाँ जाना किसी प्रकार भी उचित नहीं होगा सतीदेवी । शंकरजी के इस बात से सती का ज्ञान न हिने के कारण पिता का यज्ञ देखने, वहाँ जाकर माता और बहनों से मिलने की उनकी व्यग्रता किसी प्रकार भी कम न हो सकी । उनका प्रबल आग्रह देखकर भगवान शंकरजी ने उन्हें वहाँ जाने की अनुमति दे दी ।
सती ने पिता के घर पहुँचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बातचीत नहीं कर रहा है । केवल उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया । परिजनों के इस व्यवहार से उनके मन को बहुत क्लेश पहुँचा। उन्होंने यह भी देखा कि वहाँ चतुर्दिक भगवान शंकरजी के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है । अपने पिता दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमानजनक वचन भी कहे । यह सब देखकर सती का हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो उठा । उन्होंने सोचा भगवान शंकरजी की बात न मान, यहाँ आकर मैंने बहुत बड़ी भूल की है ।
वे अपने पति भगवान शंकर के इस अपमान को सह न पाने के कारण सतिदेवी अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योग विद्या अपने प्राणों का त्याग कर दिया ।
इस दारुण-दुःखद घटना को सुनकर शंकरजी ने क्रुद्ध होअपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस करा दिया ।
तदोपरान्त अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया । इस बार वे ‘शैलपुत्री’ नाम से विख्यात हुर्ईं । पार्वती, हैमवती भी उन्हीं के नाम है ।
आज का जप मन्त्र
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|| ॐ शैलपुत्र्यै नमः ||
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